लोगों की राय

ओशो साहित्य >> शिक्षा में क्रान्ति

शिक्षा में क्रान्ति

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :197
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3649
आईएसबीएन :81-288-0342-5

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

136 पाठक हैं

प्रस्तुत है शिक्षा में क्रान्ति....

Shiksha mein kranti BY Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

‘‘उनके शब्द निपट जादू हैं।’

 

--अमृता प्रीतम


‘‘भारत ने अब तक जितने भी विचारक पैदा किये हैं, वे उनमें सबसे मौलिक, सबसे उर्वर, सबसे स्पष्ट और सर्वाधिक सृजनशील विचारक थे। उनके जैसा कोई व्यक्ति हम सदियों तक न देख पाएँगे। ओशो के जाने से भारत ने अपने महानतम सपूतों में से एक खो दिया है। विश्वभर में जो भी खुले दिमाग वाले लोग हैं, वे भारत की इस हानि के भागीदार होंगे।’’


खुशवंतसिंह

 

शिक्षा में क्रान्ति

 

 

जीवन मिलता नहीं है, निर्मित करना होता है।
जन्म मिलता है, जीवन निर्मित करना होता है।
इसीलिए मनुष्य को शिक्षा की जरूरत है।
शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम
जीवन की कला सीख सकें।

सुख आज है, और अभी हो सकता है।
लेकिन सिर्फ उस व्यक्ति के लिए
हो सकता है, जो भविष्य की आशा में नहीं,
वर्तमान की कला में जीने का रहस्य समझ लेता है।
तो मैं शिक्षित उसे कहता हूँ जो आज जीने में
समर्थ है- अभी और यहीं। लेकिन इस अर्थ में
तो शिक्षित आदमी बहुत कम रह जायेंगे।
असल में हम पंडित आदमी को शिक्षित
कहने की भूल कर लेते हैं।
जो पढ़-लिख लेता है, उसे हम शिक्षित कह देते हैं !
 पढ़ने-लिखने से शिक्षा का कोई संबंध नहीं है।

जरूर कहीं कोई भूल हो रही है। और पहली भूल
यह हो रही है कि हम भविष्य की आशाओं को
सिखा रहे हैं, वर्तमान के सत्य को नहीं। भूल यह
हो रही है कि हम महत्वाकांक्षा में जीने की प्रेरणा
दे रहे हैं। हम जीवन की वीणा को बजाना नहीं सिखा पा रहे है।
 इस भूल के बहुत से हिस्से हैं, जिनकी मैं बात कहना चाहूँगा।

 

ओशो

 

1
अंध-विश्वासों से मुक्ति

 


मेरे प्रिय आत्मन् !
मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य या दुर्भाग्य एक ही बात में है और वह यह कि मनुष्य को जन्म के साथ कोई सुनिश्चित स्वभाव नहीं मिला। मनुष्य को छोड़कर इस पृथ्वी पर सारे पशु, सारे पक्षी, सारे पौधे एक निश्चित स्वभाव को लेकर पैदा होते हैं। लेकिन मनुष्य बिलकुल तरल और लिक्विड है। वह कैसा भी हो सकता है। उसे कैसा भी ढाला जा सकता है।

यह सौभाग्य है, क्योंकि यह स्वतंत्रता है। यह दुर्भाग्य भी है क्योंकि मनुष्य को खुद अपने को निर्मित करने में बड़ी भूल-चूक भी करनी पड़ती है। हम किसी कुत्ते को यह नहीं कह सकते कि तुम छोड़े कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर कुत्ते हैं। लेकिन किसी भी मनुष्य को हम कह सकते हैं कि तुम थोड़े कम मनुष्य मालूम होते हो। मनुष्य को छोड़कर हम और किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। मनुष्य को हम दोषी ठहरा सकते हैं। मनुष्य को छोड़कर इस पृथ्वी पर और कोई भूल नहीं करता क्योंकि सबकी प्रकृति बंधी हुई है। जो उन्हें करना है, वही करते हैं।

मनुष्य भूल कर सकता है। क्योंकि मनुष्य विकास करने की संभावना लिए हुए है। इसलिए मैं कहता हूं, यह सौभाग्य भी है क्योंकि स्वतंत्रता है विकास की ओर दुर्भाग्य भी क्योंकि बहुत भूल-चूक करनी स्वाभाविक है। मनुष्य को स्वयं को निर्माण करना होता है, बाकी सारी जातियां पशुओं की, पक्षियों की निर्मित ही पैदा होती हैं। मनुष्य को खुद अपने को ढालना और निर्माण करना होता है। इसलिए दुनिया में हजारों तरह की सभ्यताएं विकसित हुई हैं। हजारों तरह के लोगों ने मनुष्य को निर्माण करना चाहा है।

हमने भी इस देश में एक खास ढंग का आदमी पैदा करने की कोशिश की है। हम उसमें सफल नहीं हुए। लेकिन बड़ी हिम्मत की कोशिश की है, और फिर दाद दी जानी चाहिए, और हमने बड़ा साहस किया था। और ऐसा साहस किया पृथ्वी पर, जैसा इस पृथ्वी पर किसी समाज ने भी नहीं किया। साहस ही नहीं, कहना चाहिए, दुस्साहस किया।

हमने यह कोशिश की कि आदमी को परमात्मा की शक्ल में ढालेंगे। हमने यह कोशिश की कि हम, आदमी पृथ्वी पर भला रहे, लेकिन उसकी आँखें सदा स्वर्ग पर लगी रहेंगी। हमने यह कोशिश की कि हम रहेंगे पृथ्वी पर, लेकिन सोचेंगे स्वर्ग की। पृथ्वी की तरफ देखेंगे भी नहीं। यह बड़ी दुस्साहसपूर्ण कोशिश है। बड़ी असंभव चेष्टा है। असफल हम हुए, बुरी तरह असफल हुए। इस बुरी तरह असफल हए कि स्वर्ग देखना तो दूर रहा, हमें जमीन की धूल चाट लेनी पड़ी, हम जमीन पर सीधे गिर पड़े।

लेकिन हमने हिम्मत का प्रयोग किया था इन पांच हजार वर्षों में। वह हिम्मत गलत रास्ते पर गयी थी, यह साबित हो गया है। हमारी दीनता से, हमारे दुख से, हमारी दरिद्रता से, हमारी दास्ता से सिद्ध हो गया कि वह हमारी भूल हो गयी। लेकिन फिर भी हमने एक अद्भुत प्रयोग किया था। और यह प्रयोग बताता है कि ताकत हमारे पास थी और आज भी है। हम दूसरा प्रयोग भी कर सकते हैं।

वह समाज युवा है, जो सदा दूसरा प्रयोग करने की क्षमता फिर से जुटा ले। वह समाज बूढ़ा हो जाता है, जो एक ही प्रयोग में झुक जाये। क्या हम एक ही प्रयोग में चुक गये हैं या हम नया प्रयोग कर सकेंगे ? भारत के युवकों के सामने आने वाले भविष्य में यही सवाल है कि क्या एक प्रयोग करके हमारी जीवन ऊर्जा समाप्त हो गयी है ? या हम मनुष्य को बदलने का, नया बनाने का दूसरा प्रयोग भी कर सकते हैं।

पांच हजार वर्ष से हम एक ही प्रयोग के साथ बंधे हैं। हमने उसमें हेर-फेर नहीं किया। हमने बदलाहट नहीं की। लेकिन अब उस प्रयोग के साथ जीना असंभव हो गया है। तो पहले तो हम प्रयोग के संबंध में थोड़ा समझ लें जो हमने किया था और जो असफल हुआ। क्योंकि अपनी असफलता को समझ लेना सफलता के रास्ते पर जाने का पहला चरण है। अपनी भूल को ठीक से समझ लेना भूल को सुधारने की जरूरी शर्त है। अपने अतीत को ठीक से समझ लेना, ताकि भविष्य में हम उसे न दोहरा सकें, अत्यन्त जरूरी है।


मंदिर हम देखते हैं। मंदिर में आकाश की तरफ उठे हुए स्वर्ग के कलश होते हैं। मन हो सकता है किसी कवि का, किसी स्वप्नशील का, किसी कल्पना आविष्ट का कि हम एक ऐसा मन्दिर बनायें जिसमें सिर्फ कलश ही हों, स्वर्ण के चमकते हुए, आकाश की तरफ उठे हुए, सूरज की किरणों में नाचते हुए- हम सिर्फ स्वर्ण कलश ही बनायें। हम गंदी नींव न बनायेंगे। क्योंकि गंदी नींव गंदी जमीन में गड़ी होती है। अंधेरे में छिपी होती है, सूर्य से डरती है, अंधेरे से प्रेम करती है। कूड़े में, करकट में नीचे दबी रहती है। हम नींव न बनायेंगे, हम गंदी कुरूप नींव न बनाएँगे, हम तो सिर्फ स्वर्ण के शिखर बनायेंगे। हम एक ऐसा मन्दिर बनायेंगे जो सिर्फ स्वर्ण कलशों का मन्दिर हो।
कल्पना तो अच्छी है, काव्य भी अच्छा है। लेकिन यह जिन्दगी में सफल नहीं हो सकता। क्योंकि वे आज स्वर्ण के शिखर पर दिखाई पड़ते हैं ऊपर मंदिर के, स्वर्ण के कलश, वे उस गंदी नीव पर ही खड़े हैं; जो नीचे जमीन में दबी है। अगर नींव को हम भूल गये तो स्वर्ण कलश गिरेंगे, बुरी तरह गिरेंगे, और आकाश में खड़े न रहेंगे; वहां गिर जायेंगे, जहां गंदी नींव होती है। वहीं गिर जायेंगे, पृथ्वी पर गिर जायेंगे। उन्हें ऊपर उठाये रखने में, उन्हें आकाश की तरफ़ उन्मुक्त रखने में, वह नींव जो जमीन के भीतर छिपी है वही आधार है। वे मिट्टी की, पत्थर की दीवारें उनका सहारा है, इसीलिए वे आकाश में उठे रह पाते हैं। वे आकाश में उठे रह पाते हैं क्योंकि नींव के पत्थरों ने यह त्याग किया है कि वे जमीन पर खड़े रहने को तैयार हैं। उनके त्याग के कारण कलश आकाश में उठे हुए हैं।

भारत ने जिंदगी को इसी भांति ढालने की कोशिश की, कलश की जिन्दगी बनानी चाही, नींव को इनकार कर दिया। जिंदगी की नींव है भौतिक, जिंदगी की नीव है मैटीरियल, जिंदगी की नींव है पदार्थ में और जिंदगी के शिखर हैं परमात्मा में। हमने कहा, हम पदार्थ को इनकार करेंगे, हम भौतिकवादी नहीं हैं, हम शुद्ध अध्यात्मवादी हैं, हम तो सिर्फ अध्यात्म के कलशों में ही जियेंगे, हम आकाश की तरफ उन्मुख होंगे, धरती की तरफ नहीं देखेंगे।

सुंदर था सपना। लेकिन सुंदर सपने कितने ही हो, सत्य नहीं हो पाते है। सिर्फ सपने का सुंदर होना सत्य के होने के लिए पर्याप्त नहीं है।

मैंने सुना है, यूनान में एक बहुत बड़ा ज्योतिष था। वह एक सांझ निकल रहा है रास्ते से। आकाश के तारों को देखता हुआ और एक कुएं में गिर पड़ा क्योंकि आकाश के तारों में जिसकी नजर लगी हो उसको जमीन के गड्डे दिखायी पड़ें, मुश्किल है ! दोनों एक साथ नहीं हो पाता। वह एक गड्डे में गिर पड़ा है, एक सूखे कुएँ में। हड्डियां टूट गयी हैं, चिल्लाता है। पास के झोपड़े से एक बूढ़ी औरत उसे बामुश्किल निकाल पाती है। निकालते ही वह उस बूढ़ी औरत को कहता है कि मां, शायद तुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं। संभवत: मुझसे ज्यादा आकाश के तारों के संबंध में आज पृथ्वी पर कोई भी नहीं जानता है। अगर तुझे कभी आकाश के तारों के संबंध में कुछ जानना हो तो मेरे पास आना। दूसरे लोग तो आते हैं तो हजारों रुपये फीस देनी पड़ती है, तुझे मैं ऐसे ही समझा दूंगा।

उस बूढ़ी औरत ने कहा, बेटे, तुम फिक्र मत करो, मैं कभी नहीं आऊंगी। क्योंकि जिसे अभी जमीन के गड्डे नहीं दिखायी पड़ते, उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा नहीं। उस बूढ़ी औरत ने कहा कि अभी गड्डे नहीं दिखायी पड़ते जमीन के, तो तुम्हारे आकाश के ज्ञान का भरोसा क्या है ? पास का नहीं दिखायी पड़ता है, दूर का तुम्हें क्या दिखायी पड़ता होगा ? पास के लिए तुम इतने अंधे हो तो दूर के तरफ तुम्हारे दर्शन का बहुत विश्वास नहीं किया जा सकता।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai